मन की बात।

चलो मान लिया,मन की बात!

सत्तर साल हुए बर्बाद,

सारी नीतियां थी खराब।

पर तूने जो दिखाए ख्वाब,

क्या वो पूरे हुए जनाब?

चाय वाला का लिए खिताब,

बातें कर गए बेहिसाब।

ना हीं हुई आमदनी दुगनी,

ना हीं मिला रोजगार।

फिर धर्म का हुआ आगमन,

मुद्दा बनकर आए भगवान।

और ज्यों हीं आई अगली चुनाव,

बन गए तुम चौकीदार।

बदलाव का लिए अरमान,

लोगों की थी कुछ फरमान।

वादों पर थी सबकी आस,

साल बीतें सिर्फ बढ़ी प्यास।

खुद की हीं मन की बातें,

कपड़ों से दंगाइयों को पहचानते।

ये कला सिर्फ़ तुम्हे हीं आते,

भरी भीड़ में झूठी बातें।

लाखों का सुट बदन पर,

आखों पर है जर्मन चस्मा।

गरीबी की बात कर,

गरीबों को देते चकमा।

गरीब-गुरबा का हुआ किनारा,

पूंजीपतियों का बना सहारा।

सारे सवाल का एक ही जवाब,

देखो पिछले सत्तर साल।

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